Friday, 20 September 2013

पृत्युत्तर



जब मौन उतर कर आता है
वर्षा की बूंंँदें टकराती हैं।
बाहर की अविरल धवनि सुनकर, 
मन का सागर लहराता है।

मैं सोच रही थी एक दिन बैठी
जीवन-जल के कंचन तट पर,
माला का अर्थ यदि नित्य नहीं
तो मोती क्यों बिंध जाता है!

यह पृश्न नहीं पृत्युत्तर था
स्तब्ध पृाणों के मंथन का;
कब वर्षा की बूंदों से मिल
चिर माला नित बन जाती है!

तब मौन उतर कर आता है,
और साँसें भी रुक जाती हैं!

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