Sunday 13 April 2014

तकदीर का विधाता

उड़ते देखा है
आसमां के वाशिंदों को?
ये परिंदे नहीं अक्स हैं,
तराशे हैं मैंने
रात की सियाही से।
कलम थी किरणों की
और तख्ती तकदीर की।

क्यँू झुकाऊंँ मैं सर
किस्मत के दरवाजे पर?
खुदा की इबादत में जो
झुकता है केवल,
कह दिया कल उसने
फिकृ न कर
ऐ बन्दे,
तेरी तकदीर का विधाता
मैं नहीं तू खुद है !

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