Saturday 1 March 2014

बचपन अनजाना सा...

For the children in Orphanage--

बचपन अनजाना सा...

रात की आँखों में
चाँद का सपना था,
परियों की लोरी और
तारों का पलना था।

छोटी हथेलियाँ थीं
सिंदूरी फूलों सी,
रेखाओं का जाला था
पराया पर अपना सा।

हँसी खिलखिलाती जब
मोती क्यूं गिरते थे,
बच्चे क्यूँ प्यारे प्यारे
बिन मात-पिता के सारे थे?

टूटी सी खिडकी से
झांकता बचपन था।
आँसओं के साये में
पलता यौवन था।

खेल औ खिलौने
गुडिया की शादी थी,
भूतों की कहानी
शैतानी नादानी थी।

मंदिर में मूर्ति,
झोले में किताबें,
श्वेत श्याम से सपने
गुलिस्तां सजाया था।

पर मैंने देखी
चुपके से...

तकिये के नीचे
धुँधली एक फोटो,
माँ की याद में
बहता एक आँसू !
जैसे,
पलकों के पीछे
संध्या की लाली..
जैसे,
काजल के नीचे
रेखा़यें काली....

कैसा यह बचपन था
जाना अनजाना सा ?
मन मान सका न जिसको
अपना, पहचाना सा...!







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